इक आम का पेड़ था
-सौरभ राज शरण
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मोतिहारी के आँगन में
उसके बौर कोई खाता न था
घर में जो कोई ना था
सब आजकल दुसरे शहर रहते है
एक गागर का पेड़ वहीं
फलों से लदा सूख रहा है
कोई कम्बख्त काटता भी नहीं
मैंने शीशम पर खुदा था
अपना नाम , नम था वो तब
अब खुश्क हो चला है
पर भरा नहीं आजतक ।
अब वहां के पेड़ झुक से गए है
और घास लम्बी होती जा रही है
-सौरभ राज शरण
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