Saturday, August 18, 2012

गुलज़ार का ७८ वाँ जन्मदिन






बात छुटपन की है एक गाना सुना था ग़ुलामी का | मिथुन चक्रवर्ती चलती बस के ऊपर हाथ में ढोल लेकर फिल्म की हेरोइन अनीता राज को प्यार का इज़हार कर रहा था , बोल एकदम फिल्म की मजबूरियां दर्शा रहे थे   कुछ इस तरह थे उसके बोल -
"जिहाल -ए -मिस्कीं  मकुन  ब -रंजिश ,
बहाल -ए -हिज्र  बेचारा  दिल  है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है ....."

गाना बहुत वज़नदार था , थोडा थोडा समझ आया और बहुत ही अच्छा लगा , और हमारा ध्यान गाने की पंक्तियों पर गौर करने लगा |
अर्थपूर्ण कवितायों की  ओर  झुकाव बढता गया |
मैंने उसके बाद इज़ाज़त  देखी , फिल्म समझ में आई नहीं मगर उसके गाने खास करके "मेरा कुछ सामन " इतनी पसंद आई की ध्यान भी नहीं गया की निर्देशक और कवि दोनों एक ही सक्श हैं|

"सावन  के  कुछ  भीगे  भीगे  दिन  रखे  हैं
और  मेरे  इक  ख़त  मैं  लिपटी  रात  पड़ी  है
वो  रात  भुला  दो , मेरा  वो  सामान  लौटा  दो
मेरा  कुछ  सामान  तुम्हारे  पास  पड़ा  है "

पीछे मुड़ कर देखा तो बहुत सारे पसंदीदा गीत सिर्फ गुलज़ार के थे | जब आंधी के गाने चित्रहार पर आते थे तो दिल थम जाता था -

"तेरे  बिना  ज़िन्दगी  से  कोई , शिकवा  नहीं
तेरे  बिना  ज़िन्दगी  भी  लेकिन  ज़िन्दगी  तो  नहीं
जी  में  आता  है , तेरे  दामन  में , सर  छुपा  के  हम
रोते  रहे , रोते  रहे
तेरी  भी  आखों  में , आसुओं  की , नमी  तो  नहीं "

या

"तुम  आ  गए  हो , नूर  आ  गया  है ,
नहीं  तो   चराग़ों  से  लौ  जा  रही  थी ,
जीने  की  तुमसे  वजह  मिल  गयी  है ,
बड़ी  बेवजह , ज़िन्दगी , जा  रही  थी …"


भाववाहक शब्दों से लैस हो कर ज़िन्दगी के करीब ले कर गया गुलज़ार का हर गीत | प्यार से हम दोस्तों ने उनका नाम रख दिया गुल्लू भाई |

गुल्लू भाई की कुछ पहले के गीत -

"जब तारे ज़मीं पर चलते हैं
आकाश ज़मीं हो जाता है
उस रात नहीं फिर घर जाता, वो चांद यहीं सो जाता है
जब तारे ज़मीं पर चलते हैं
आकाश ज़मीं हो जाता है
उस रात नहीं फिर घर जाता, वो चांद यहीं सो जाता है
पल भर के लिये इन आँखों में हम एक ज़माना ढूंढते हैं, ढूंढते हैं
आबोदाना ढूंढते हैं...
दो दीवाने शहर में..."

मौसम मूवी ने तो रौंगटे ही खड़े कर दिए , गीतों ने उन रौंगटों को बरकरार रखा -
"सुबह ना आयी कई बार नींद से जागे
की एक रात की ये ज़िन्दगी गुज़ार चले
रुके रुके से कदम..."

"दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
दिल ढूँढता है...

जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर आँचल के साये को
औंधे पड़े रहें कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है..."


जब गुलज़ार साब के सुन चुके गानों को सुना तो एकदम यकीं से कह सका की गुल्लू भाई के अलावा ऐसे गहरे शब्द  और कोई लिख ही नहीं सकता |
"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं
हैरान हूँ मैं
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं
परेशान हूँ मैं

जीने के लिये सोचा ही न था, दर्द सम्भालने होंगे
मुस्कुराऊँ तो, मुस्कुराने के कर्ज़ उठाने होंगे
मुस्कुराऊँ कभी तो लगता है
जैसे होंठों पे कर्ज़ रखा है
तुझसे ..."

यह एक गाना आज भी मैं अकेले में गाता हूँ और इसके मतलब में खो जाता हूँ | गुलज़ार उस रौशनी की तरह है जिसमे डूबने के बाद ही मज़ा आता है | मज़ाक में दुसरे दोस्तों को मैं चिद्दाने लगा - जब तक गहराई में जा कर नहीं बैठोगे तब तक समझ नहीं आएगा |
मासूम का एक और गीत - 
"हो थोड़ा सा बादल थोड़ा सा पानी
और एक कहानी
दो नैना और एक कहानी"
या फिर छेद्द्खानी का यह बोल - 

" हुज़ूर इस कदर भी न इतरा के चलिये
खुले आम आँचल न लहरा के चलिये 

कोई मनचला गर पकड़ लेगा आँचल
ज़रा सोचिये आप क्या कीजियेगा
लगा दें अगर बढ़के ज़ुल्फ़ों में कलियाँ
तो क्या अपनी ज़ुल्फ़ें झटक दीजियेगा
हुज़ूर इस ...

बहुत दिलनशीं हैं हँसी की ये लड़ियां
ये मोती मगर यूँ ना बिखराया कीजे
उड़ाकर न ले जाये झोंका हवा का
लचकता बदन यूँ ना लहराया कीजे
हुज़ूर इस ...

बहुत खूबसूरत है हर बात लेकिन
अगर दिल भी होता तो क्या बात होती
लिखी जाती फिर दास्तान-ए-मुहब्बत
एक अफ़साने जैसे मुलाक़ात होती"

मुझे थोडा गुस्सा आया था जब बच्चों के लिए भी उन्होंने बहुत ही बेहतरीन गीत लिखा, शायद बड़े होने की होद्द थी -
"लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा"

"ऐ जिन्दगी, गले लगा ले
हम ने भी, तेरे हर एक गम को
गले से लगाया हैं, हैं ना.." सदमा के इस बोल ने तो हिला कर रख दिया था , गुनगुनाने के लिए कितने सरल और उतना ही कठिन है |

कभी कभी मेरे दिल से आवाज़ आती है , आखिर कैसे लिख पाते है | और करीब आते गया , जो भी गाना पसंद आता था , वो गुलज़ार के होते थे |

ग़ालिब के भी करीब गुलज़ार के कारण ही आ सका , डीडी पर मिर्ज़ा ग़ालिब गुलज़ार के आवाज़ और नज्मों के लिए सुनता था | क्या बेहतरीन निर्देशन और अपने गुरु को दक्षिणा दे डाली |

"बल्ली  मारा  के  मोहल्ले  की  वोह  पेचीदा  दलीलों सी  गलियां 
सामने  ताल  के  नुक्कड़  पे  बटेरों  के  कसीदे 
गुदगुदाती  हुई   पान  के  पीकों  में  वोह  दाद , वोह  वाह -वाह ,
चाँद  दरवाजों  पर  लटके  हुए  बोसीदा  से  कुछ  टाट  के   परदे , 
एक  बकरी  के  ममियाने  की   आवाज़ , 

और  धुन्द्लाई  हुई  शाम   के  बेनूर   अँधेरे ,
ऐसे  दीवारों  से   मूह  जोड़  के  चलते  हैं  यहाँ ,
चूड़ी   वालान  के   कतरे  की  बड़ी  बी  जैसे 
अपनी  बुझते हुए  आँखों  से  दरवाज़े  टटोले ,

इसी  बेनूर  अँधेरी  सी  गली  कासिम  से , 
एक  तरतीब  चराग़ों  के   शुरू  होती  है ,
एक  पुराने  सुफन  का   सफा  खुलता  है ,
असाद   उल्लाह  खान  ग़ालिब  का   पता  मिलता  है ...".

पेश है हज़ारों पसंदीदा नज्मों से एक नज़्म - 
"कागज़ पर गिरते ही फूटे लफ़्ज़ कई
कुछ धुआँ उठा... चिंगारियां कुछ
इक नज़म में फिर से आग लगी!" 
गुलज़ार ने त्रिवेणी भी बहुत लिखी है , सारी किताबें खरीद कर सजा ली है , 
पढता और सुनाता रहता हूँ - जितना भी लिखूं कम है क्यूंकि ज़िन्दगी चंद पन्नों पर नहीं लिखी जाती आखिर गुलज़ार ने ज़िन्दगी को इतने करीब से जाना है |

"दिल जले तो धुआँ ही उठता है... 
क्यूं कभी रोशनी नहीं होती ?"


एक  और 



"रात उदास नज़्म लगती है
ज़िन्दगी फिर रस्म लगती है "




आज गुलज़ार का ७८ वाँ जन्मदिन हैं , मैं तो बस यहीं चाहता हूँ की अपना गुल्लू भाई बस लिखता रहे क़यामत तक |
पेश है मेरी एक तुक्ष सी कविता -
"आज रात महफ़िल जमायेंगे

अपने गुलज़ार दुनिया के दोस्तों
नाम फिर एक जाम उठायेंगे |"

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